अंग्रेज़ी भाषा में यदि किसी एक शब्द ने कम से कम कालावधि में अपने शब्दार्थ एवं भावार्थ की सीमाओं को लांघा है तो वह है “वोक” ! “जागते-रहो” के लघबग़ पर्यायवाची इस शब्द के, चेताने से ले कर अपमानजानक ओर फिर एक हास्यास्पद संबोधन होने तक इसके भावार्थ का तीव्र रूपांतर हुआ है !
अंग्रेज़ी भाषा में यदि किसी एक शब्द ने कम से कम कालावधि में अपने शब्दार्थ एवं भावार्थ की सीमाओं को लांघा है तो वह है “वोक” ! “जागते-रहो” के लघबग़ पर्यायवाची इस शब्द के, चेताने से ले कर अपमानजानक ओर फिर एक हास्यास्पद संबोधन होने तक इसके भावार्थ का तीव्र रूपांतर हुआ है !
कहते हैं सत्रहवीं शतब्दी के अमेरिकी गृहयुद्ध के समय में “वोक” शब्द का पहला प्रयोग हुआ था ! अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के सामान्य बोलचाल वाली शब्दावली में श्वेत वर्चस्ववादियों के खिलाफ चेताने के आव्हान के रूप में इस शब्द ने अपनी यात्रा शुरू की। तत्पश्चाहत जब ऊबे हुए, अति उत्साही, अस्तित्व से वंचित झूटी श्रेशतठा दर्शाने और ढुलमुल तेवर वाले वर्ग के लोग जब इस शब्द का आवश्यकता से अधिक प्रयोग करने लगे तब इस शब्द के भावार्थ का गांभीर्य कम होते हुए हल्का और हास्यास्पद हो गया। सामान्यतः यह शब्द अब एक कृत्रिम और निष्ठाहीन वर्ग के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। “वोक” अपनी पहचान बनाने और अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा में किसी भी संदर्भहीन आंदोलन या मुद्दे का सहारा लेने से नहीं चूकता। इस पाखंडी एवं ढोंगी आचरण के चलते वर्तमान काल में इस श्रेणी के लोगो को पाश्चात्य देशों मे गम्भीरता से नहीं लिया जाता और ‘वोक’ उपनाम अब एक अपमानजनक स्तर तक गिर गया। ब्रिटिश व्यंग्यकार एंड्रयू डॉयल ने तो अपनी 2019 की पुस्तक “वोक” में “टाइटेनिया मैकग्राथ”’ नामक मज़ाक़िया काल्पनिक चरित्र का निर्माण करते हुए पाश्चात्य “वोक” चरित्र को संस्थागत स्वरूप दे दिया है। “वोक” समुदाय के सतत आंदोलनरत रहने के स्वभाव के चलते वर्तमान में “वोक” शब्द कुटिल वामपंथ से भी जुड़ा गया है।
नस्लीय भेदभाव, कट्टर नारीवाद, एलजीबीटीक्यू समर्थन, जलवायु परिवर्तन, वन्यजीव संरक्षण इत्यादि मुद्दों पर चरम वामपंथी सक्रियतवाद में पाश्चात्य “वोक” की विशिष्ट रुचि रहती है। परंतु इन मुद्दों की गम्भीरता को दरकीनार करते हुए अथवा उनकी गहरायी को समझे बिना, या फिर उनके समाधान से हट कर “वोक” केवल अपना उल्लू सीधा करने के उद्येश से इनके समर्थन में खड़ा होता है। स्वयं पर लोगों का ध्यान कैसे आकर्षित किया जाए इसी पर वह केंद्रित होता है। एक अवधी के पश्चात अब लोग “वोक” के इस आडम्बर को भांप भी गए हैं जिसके चलते “वोक” व्यक्तियों को हल्के में लिया जाने लगा है। “वोक” समाज का उपहासास्पद आडम्बर उनके कार्यक्रमों में भी झलकता है। उदाहरण स्वरूप, सशत्र शांतिप्रिय विरोध, वैश्विक भुखमरी के सर्थन में प्रीतिभोज, नारी उत्पीड़न के वरोध में फ़ैशन शो, वन्य संरक्षण के लिये बोनफएर पार्टी इत्यादि जैसे हास्यास्पद विरोधाभास से इनके कार्यक्रम लिप्त होते हैं। चिड़चिड़ा स्वभाव, उत्पीड़न का भाव, सतत आंदोलनरत, विशेषाधिकार से परिपूर्ण होना “वोक” व्यक्तित्व की विशेषता है।
अपने मूल अस्तित्व का आभाव एवं अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की लालसा वोक संस्कृति का आधार हैं। इसमें आश्चर्य नहीं है कि व्यक्तित्व को अस्तिस्व से अधिक महत्व देने वाली पाश्चात्य सभ्यता ही “वोक” समाज की जननी है। अस्तित्व उभारने के लिए योग्यता, उत्कृष्टता और कठिन परिश्रम सर्वोपरि है परंतु व्यक्तिव उभारने के लिए ध्यान आकर्षण करने मात्र से काम बन सकता है। इसी के चलते औसत बुद्दिमत्ता के लोगों को ध्यान आकर्षण की होड़ में वोक सक्रियता सुविधाजनक विकल्प प्रदान करती है। नियम सरल हैं। आप दिखने में जीतने अजीब होंगे, आपकी तरफ उतनी ही आँखें उठेंगी। महिलाओं की वेशभूषा में पुरुष, समलैंगिगता, नग्न आंदोलन, कट्टरपंति व्यवहार, निरर्थक सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध इत्यादि ध्यान आकर्षित करने वाले ‘वोक’ कृत्यों और व्यवहार के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
पश्चिम में अब ‘वोकवाद’ उल्लेखनीय रूप से मुख्यधारा में संभागित हो गया है। विशेष रूप से उन युवाओं में जो अपने भ्रमित और प्रभावित हो जाने की उम्र में हैं। यह एक बड़ी आबादी है। उद्यमों और वामपंथी राजनेताओं ने उनमें एक श्रोता वर्ग ढूंढ लिया है। वैश्विक ब्रांड ग्राहकों की खोज में नियमित रूप से वोक मुद्दों के साथ जुड़ते हैं और वामपंथी राजनेता अपने कार्यसिद्धि के लिए वोकवादीययों में इच्छुक अराजकतावादी पा जाते हैं। और यह दोनो ही पसचिम में वोकवाद के चक्र को आगे बढ़ाते चले जाते हैं।
वैसे तो एशियाई संस्कृति से ‘वोकवाद’ अनजान है, पर इसके बीज यहाँ भी अंकुरित होने लगे हैं। भारत का अपना एक “वोकिस्तान” है। आम तौर पर, महानगरों में विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन अंग्रेज़ विचारधारा वाले, विशेष रूप से युवा, जिन्हें मेट्रोपप्पू भी कह सकते हैं, भारतीय वोकिस्तान को गठित करता है। इसमें आश्चर्य नहीं है क्योंकि सामान्यतः इसी वर्ग के युवा अमेरिकी वोक-विश्वविद्यालयों में, जो कि वैश्विचक “वोक” संस्कृति के अंकुरण का उपजाऊ खेत है, अपनी शिक्षा प्राप्त करते है ओर अपने मस्तिष्क को “वोक संस्कृति” के चरणो में समर्पित करते है। भारत लौटने पर और भारत में रहते हुए भी सांस्कृतिक स्वरूप में यह वर्ग एक पाश्चात्य बुलबुले में ही जीता है। भारत की तपती धूप और धूल भरे पठारों पर जहां सामान्य वर्ग का भारतीय कड़ी मेहनत करता है, प्रतिस्पर्धा करता है और सफल होता है उस वातावरण में भारत का यह वोकिस्तान अपने आप को असमर्थ पाता है और इसलिए अपने लिए वोकिस्तान का आसान विकल्प चुन लेता है।
भारतीय वोकिस्तान को पहचानना आसान है। आम तौर पर, विरोध प्रदर्शन, कैंडललाइट मार्च, कॉमेडी क्लब आदि में इन्हें पाया जाता है। निजी स्वरूप में ये वर्ग शहर के अभिजात क्लबों, साहित्य उत्सवों, कला उत्सवों आदि मे दिखते हैं। पहचानने के लिए पैनी नजर चाहिए बस । सोशल मीडिया प्रोफाइल कुछ सुराग दे सकता है। इनके संगीत, भोजन, किताबें, छुट्टियां, शौक, भाषा, शिक्षा, पॉप आइकन, आदतें सभी आमतौर पर पश्चिमी होते हैं। आचरण में विरोधाभास यहाँ भी खूब दिख़ेगा। स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी के साथ सेल्फी; अच्छा है, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के साथ; नहीं। स्पेन में पैम्प्लोना का खेल रोमांचक है, तमिलनाडु का जल्लीकट्टू नहीं। मैकियावेली होशियार हैं, चाणक्य नहीं। वाशिंगटन का नेशनल मॉल शानदार है, दिल्ली का कर्तव्य पथ नहीं। हैलोवीन के लिए हां है तो होली ना है। मूलतः वोकिस्तान के लिए भारत, भरतीय एवं भारतीयता लो-क्लास और हीन है। क्योंकि इसी से वे अपने आप को दूसरों से ऊपर होने की भावना जागृत कर पाते हैं अथवा उनके अस्तित्व की आधारशिला बना हुआ पाश्चात्य सामाजिक – सांस्कृतिक बुलबुले के फूटने का ख़तरा होता है।
वोकिस्तान पासपोर्ट के प्राप्ति के लिए एक स्पॉन्सर्ड या प्रायोजित जीविका मददगार साबित होती है। आप यदि रोज़गार कमाने में व्यस्त हैं तो शायद वोकिस्तान आपके लिए नहीं है। ख़ानदानी रईस हैं तो फ़ायदे मे रहेंगे परंतु किसी भी प्रकार की प्रायोजित जीवनशैली जैसे सरकारी सब्सिडी, छात्रवृत्ति, मुफ्त छात्रावास, एनजीओ अनुदान आदि आपको पास्पोर्ट दिलाने में मदद दे कर सकते हैं। और यदि आप अपने प्रायोजित अस्तित्व के एवज़ में विनम्रता तो दूर बल्कि घमंड से उसे अपना विशेषाधिकार समझते हैं तो आप पास्पोर्ट के सही हक़दार है। आपके सामान्य ज्ञान की सीमा इंस्टा रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और अख़बार के पेज-थ्री तक सीमित हो तो और भी खूब! विदेश में छुट्टियां, खास अन्दाज़ में अंग्रेजी उच्चारण, डिजाइनर अध्यात्मवाद, विदेशी मदिरा आदि का आपको शौक़ होना चाहिए या कम से कम इन सब का दिखावा करने के क्षमता तो होनी ही चाहिए। भारत का सामाजिक या सांस्कृतिक ज्ञान ना होना भी “वोकिस्तान” की शुरुआती योग्यता है। आजकल अपने नाम से पहले लैंगिक उपनाम जैसे he-his-her लगाने का भी वोकिस्तान में एक प्रचलन है।
फ्लैश कैंडललाइट विरोध और टी20 धरना वोकिस्तान के पसंदीदा आंदोलन हैं। नियमित रूप से इन में भाग लेने से इन्हें अब एक उपाधि भी मिल चुकी है – आंदोलनजीवी ! जनोपयोगी परियोजनाओं और सामान्य जनमानस को उपयोगी नगरीक सेवाओं के विरोध के आंदोलनो में इनकी ख़ास रुचि रहती है। इन विरोध प्रदर्शनों मे वोकिस्तानियों की संख्या कोई मायने नहीं रखती। अपने उपद्रव से दूसरों को परेशानी होनी चाहिए बस यही मायने रखता है। आंदोलन के मुद्दे का संज्ञान होने की भी आवश्यकता नहीं है। सच कहें तो, वोकिस्तान में बुद्धिमत्ता को कोई वरीयता प्राप्त नहीं है अपितु बेवकूफी और बेहूदा आचरण उन्हें अधिक ध्यान आकर्षण की गारंटी देता है। राजनीतिक रैलियों के लिए ट्रैक्टर-ट्रेलरों में लायी गइ ग्रामीण भीड़ के साथ इसकी तुलना की जा सकती है। लेकिन एक अंतर है। वोकिस्तानी को आंदोलन की जागरूकता कम होती है। वह खुद के वाहन की व्यवस्था करता है, सर्वश्रेष्ठ डिजाइनअर कपड़े पहनता है और शैंपेन ब्रंच और शाम के कॉकटेल के बीच की ऊबा देने वाली शून्यता को भरने के लिए विरोध प्रदर्शन में अपने सुविधानुसार भाग लेता है। आंदोलन में कपड़े भी मायने रखते हैं। समलैंगिक पोशाक, एथनिक पहनावा या फिर फ़ंकी फ़ैशन का आप प्रयोग कर सकते हैं।
पाश्चात्य “वोक” सभ्यता पर निकट भूतकाल में काले बादल मंडराते प्रतीत होते हैं ! सामन्य जनमानस अब उनके प्रति सहिष्णु नहीं दीखता। अपितु “वोकवाद” एवं चरम वोक कृत्य जैसे “न्यूडिस्ट-मार्च” और “पीपल हैव पीरियड्स” जैसे आंदोलनो के प्रति एक घृणात्मक प्रतिक्रिया होती दीखती है। भारतीय वोकिस्तान के प्रति भी एक अससंतोष की भावना प्रतीत होती है जिसके जनआक्रोश में बदलने की सम्भावना है। मेहनतकश सामान्य भारतीय नगरीक इन वोकवदियो के हथकंडो से ऊब गया लगता है ! समय आ गया है कि वोकिस्तान भी अपनी ऊटपटाँग हास्यास्पद हरकतों सा बाज आए और अपने प्रति उठती नकारतमक भावना के प्रति जागृत हो जाए !
जागो वोकिस्तान…… अब भोर भई
This article was published on – दैनिक भास्कर
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